क्रांतिभिलाषी कामरेड कन्हैया,
क्या
करें ‘क्रांतिभिलाषी’ लिखना पड़ेगा न ? मज़बूरी है. क्रांति की
इतनी बड़ी अभिलाषा जो है तुममे. मानता हूँ तुम्हारा क्रांतिकारी भाषण सुनने में थोड़ी
विलंब हो गयी. माफ़ करना, ‘भाषण’ नही
तुम्हारा ‘क्रांतिकारी
अनुभव’. परन्तु, तुम्ही
उसे कहीं पर ‘अनुभव’ कहते हो, और कहीं पर ‘भाषण’. जेल से लौटने के तुरंत
बाद जेएनयू में दिए गए अपने शुद्ध बनावटी भाषण को तुमने ‘अनुभव’ बताया और NDTV
के रविश कुमार को दिए अपने
साक्षात्कार में उसी ‘अनुभव’ को भाषण. हालांकि, चाहे वह जो भी हो, अनुभव या भाषण, था तो ‘बहुते
क्रांतिकारी-बहुते क्रांतिकारी’. का बतायें कि कितना
क्रांतिकारी ? हालाँकि, मेरी ऐसी भाषा के कारन
स्वयं को दिल्ली चुनाव के पूर्व वाला अरविन्द केजरीवाल और मुझे अपुण्य प्रसून
वाजपेयी समझने की भूल मत करना. ऐसी कोई बात नही है. एकदम नही. कोई बराबरी नही है
तुममे और केजरीवाल में कामरेड. दूर-दूर तक नही. तुम शुरू से ही केजरीवाल से दो कदम
आगे दिख रहे हो. इसका जीता-जागता प्रमाण है कि तुमने मिलने के लिए उन्हें घंटे भर
का इंतज़ार तक करवा डाला. इतने कम समय में इतनी तरक्की ? वाह कामरेड ! वाह !!
केजरीवाल महोदय ने ट्वीट कर तुम्हारे भाषण की प्रशंसा भी की थी. करनी भी चाहिए.
किसी को भी अपने क्षेत्र के अपने से ज्यादा योग्य आदमी की अवश्य ही प्रशंसा करनी
चाहिए.
तुम्हारी वह दिल्ली पुलिस के एक सिपाही के साथ बातचीत
वाली और जेल में तुम्हे मिली ‘लाल और नीले’ कटोरे वाली कहानियाँ
सुनकर तो मुझे पक्का यकीन ही हो गया कि बात बनाना तो तुम्हे बिलकुल भी नही आता है, ठीक उसी प्रकार जिस
प्रकार से केजरीवाल महोदय को बिलकुल नही आता. ऐसी सत्य-आधारित कहानियां हम पहले से
ही उनसे सुनते आ रहे हैं. कभी उन्हें कोई रिक्शावाला मिल जाता है, तो कभी कोई ऑटोवाला, और कभी तुम्हारी तरह
कोई पुलिसवाला भी जो उन्हें चुपके से बताता है, कि कैसे वह
आलाधिकारियों के दबाव की वज़ह से चाह कर भी ईमानदारी से काम नही कर पा रहा .
प्रधानमंत्री कार्यालय तक में उनके गुप्तचर मौजूद हैं जो उन्हें समय-समय पर बताते
रहते हैं कि कैसे प्रधानमंत्री दिन-रात उनके खिलाफ षड़यंत्र में जुटे रहते हैं, और यही प्रधानमंत्री
कार्यालय का काम भी है. तो कामरेड, तुम्हारी कहानियां भी
उन्ही की कहानियों की तरह बिलकुल सत्य घटनाओं पर आधारित प्रतीत होती हैं. तुमने यह
भी कहा कि 'जब
तक जेल में चना रहेगा तब-तक आना-जाना बना रहेगा'. तो एक बात इधर से भी
कान खोल कर सुन लो कामरेड कि 'जब तक जेएनयू में देशद्रोह बना रहेगा, हमारा-तुम्हारा ठना
रहेगा'. हाँ, एक
बात और, वह
तुम्हारी ‘लाल
और नीले’ कटोरी
वाली कहानी सुनकर मुझे भी एक बार तिहाड़ घूम कर आने का मन करने लगा है. देखना चाहता
हूँ ‘लाल
और नीली’ कटोरियाँ
होती कैसी हैं, आज
तक अपने जीवन में मैंने ऐसे रंग की कटोरियाँ नही देखी.
चलो, अब थोड़ी तुम्हारी ‘क्रांति’ पर आते हैं. तुमने कहा
जेएनयू का विद्रोह ‘स्पोनटेनीयस’ था और यह भी कहा कि
बदलाव ही सत्य है और इसी ‘स्पोनटेनीयस
विद्रोह’ को
तुम अपने भाषण में ‘क्रांति’ का नाम दे रहे थे और
मुमकीन है कि ऐसे ही ‘स्पोनटेनीयस
क्रांति’ के
सहारे तुम बदलाव का सपना भी देख रहे होगे. मुझे हंसी आती है तुम्हारी ‘क्रांति’ के भ्रांतिपूर्ण समझ
पर. ‘क्रांति’ और ‘स्पोनटेनीयस’? कहाँ से सीखे हो बंधू ? चलो, जिनके नाम पर स्थापित
विश्वविद्यालय में पढ़ते हो और पता नही कब तक पढोगे, उनके ही विचार के बारे
में बताता हूँ कि ‘क्रांति
और बदलाव’ के
बारे में उनकी क्या समझ थी. राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ की अनुपम कृतियों में
से एक, (जिनकी एक कृति ‘कुरुक्षेत्र’ की एक पंक्ति तुमने भी
अपने भाषण के दौरान उधृत की थी, जिस पर मैं बाद में
आऊंगा) ‘संस्कृति
के चार अध्याय’ की
प्रस्तावना’ लिखते
हुए पंडित जवाहरलाल नेहरु ने 30 सितम्बर 1955
को, ‘क्रांति और बदलाव’ के सम्बन्ध में अपने
विचार इस प्रकार रखे थे. उन्होंने कहा था –
“असल में, हमारा ध्यान उन्ही
परिवर्तनों पर जाता है, जो
हिंसक क्रांतियों या भूकंप के रूप में अचानक फट पड़ते हैं. फिर भी, प्रत्येक
भूगर्भ-शास्त्री यह जानता है कि धरती की सतह में जो बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं, उनकी चाल बहुत धीमी
होती है और भूकंप से होनेवाले परिवर्तन उनकी तुलना में अत्यंत तुच्छ समझे जाते
हैं. इसी तरह, क्रांतियाँ
भी धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तन और सूक्ष्म-रूपांतरण की बहुत लम्बी प्रक्रिया का
बाहरी प्रमाण मात्र होती हैं. इतिहास में कभी-कभी ऐसा भी समय आता है जब परिवर्तन
की प्रक्रिया और उसकी तेजी कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो जाती है. लेकिन, साधारणतः, बाहर से उसकी गति दिखाई
नहीं देती. परिवर्तन का बाहर रूप, प्रायः, निस्पंद ही दीखता है.”
अब जरा स्वयं के ‘स्पोनटेनीयस क्रांति’ वाली समझ को ऊपर के
विचारो से सम्बंधित कर देखना और सोचना, फिर पता चलेगा ‘क्रांति’ के बारे में तुम्हारी
समझ की पहुँच कहाँ तक है.
तुमने अपने भाषण में संविधान की बहुत बाते की. अच्छा लगा सुनकर, विशेषकर 'न्यायिक हत्या' वाली पोस्टर देखने के पश्चात, यह एक भ्रामक मगर सुखद अनुभव था. मेरा एक सुझाव है, राजनीती और नारेबाजी से समय मिले तो सबसे पहले ‘जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय अधिनियम 1966’ को एक बार जरुर पढना क्योंकि तब तुम्हे पता चलेगा कि जेएनयू की स्थापना के पीछे का मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रीय एकता और अखंडता’ है, न कि भारत की बर्बादी और कश्मीर की आज़ादी.’ तुम जिस विश्वविद्यालय में पढ़ते हो, यदि उसके उद्देश्य पर ही खरा न उतर पाओ और उसकी ही रक्षा न कर सको, तो बाकी गरीबी और भ्रष्टाचार हटाने के उद्देश्य के बारे में तो सोचना भी उर्जा का अपव्यय है, सोचो ही मत, वही उत्तम होगा.
तुमने अपने भाषण में संविधान की बहुत बाते की. अच्छा लगा सुनकर, विशेषकर 'न्यायिक हत्या' वाली पोस्टर देखने के पश्चात, यह एक भ्रामक मगर सुखद अनुभव था. मेरा एक सुझाव है, राजनीती और नारेबाजी से समय मिले तो सबसे पहले ‘जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय अधिनियम 1966’ को एक बार जरुर पढना क्योंकि तब तुम्हे पता चलेगा कि जेएनयू की स्थापना के पीछे का मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रीय एकता और अखंडता’ है, न कि भारत की बर्बादी और कश्मीर की आज़ादी.’ तुम जिस विश्वविद्यालय में पढ़ते हो, यदि उसके उद्देश्य पर ही खरा न उतर पाओ और उसकी ही रक्षा न कर सको, तो बाकी गरीबी और भ्रष्टाचार हटाने के उद्देश्य के बारे में तो सोचना भी उर्जा का अपव्यय है, सोचो ही मत, वही उत्तम होगा.
तुमने अपने भाषण में समानता-असमानता के ऊपर राष्ट्रकवि
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित उनकी अनुपम
कृति ‘कुरुक्षेत्र’ की एक पंक्ति भी उधृत
की, पर
काश तुम भारत के एकता और अखंडता के बारे में भी उनके निम्नाकित विचार को पढ़ और समझ
पाते, जिसे
उन्होंने ‘हिमालय
का सन्देश’ कविता
में निम्न रूप से व्यक्त किया है :-
“भारत है संज्ञा विराग
की, उज्ज्वल
आत्मउदय की,
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की,
भारत है भावना दाह जग-जीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुष्य को राग्मुक्त करने की !
जहाँ कहीं एकता अखंडित जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित, भास्वर है ! “
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की,
भारत है भावना दाह जग-जीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुष्य को राग्मुक्त करने की !
जहाँ कहीं एकता अखंडित जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित, भास्वर है ! “
तुमने मनु और मनुवाद को भी जी भर की गालियाँ दी. नारे
लगा-लगा कर गालियाँ दी. परन्तु, जानते हो ‘मनु’ और ‘मनुपुत्र’ पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के विचार ? चलो, वह भी बता देता हूँ कि
उन्होंने ‘चाँद
और कवी’ शीर्षक
नामक अपनी कविता में इस विषय पर क्या कहा था –
“मनु नही, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी,
कल्पना की जीभ में भी धार होती है !
बाण ही होते विचारों के नही केवल,
स्वपन के भी हाथ में तलवार होती है !!
कल्पना की जीभ में भी धार होती है !
बाण ही होते विचारों के नही केवल,
स्वपन के भी हाथ में तलवार होती है !!
मशहूर कथाकार 'शैवाल' ने अपनी आत्मकथा में
माउंटेन मैन ‘दशरथ
मांझी’ के
बारे में, लिखते
हुए यह कहा है, जो
दूसरी बार तुम्हारी ‘स्पोनटेनीयस
क्रांति’ के
कांसेप्ट को स्पष्ट करने में पूर्ण रूप से मदद कर सकेगा और तुम्हारा असली आइकॉन
चुनने में भी, कि
-
“ये पहाडी रास्ता
क्रांति का रास्ता प्रतित होता है क्योंकि समूह का प्रेम ही क्रांति है. तुम सोचते
हो बोल देने से होता है प्रेम, मैं सोचता हूँ जो उदित
हो रहा है तुम्हारे अन्दर उसे चढ़ने दो आसमान पर, चुप रहो और बोलो अपनी
चुप्पी में, लड़ो
पर प्रेम करो सारी सृष्टि से, सारे समुदाय से, प्रेम नही बोलता.
क्रांति महज इतना नही है कि उठालो शस्त्र या बोल दो नारा, प्रेम करना सीखो जैसे
ये श्वेत पुष्प जीना सीखता है रक्त के समुदाय के साथ मेरे भीतर.”