डॉ श्यामाप्रसाद मुख़र्जी की
रहस्मयी मौत के तुरंत पश्चात् उस समय के तात्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली
राधाकृष्णन ने नम-नेत्रों से डॉ मुख़र्जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था
कि, “ अपने सार्वजनिक जीवन में वह अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को एवं अपनी अंदरूनी
प्रतिबद्धताओं को व्यक्त करने में कभी डरते नही थे. ख़ामोशी में कठोरतम झूठ बोले
जाते हैं. जब बड़ी गलतियाँ की जाती हैं तब इस उम्मीद में चुप रहना अपराध है कि
एक-न-एक दिन कोई सच बोलेगा.”
विडम्बना यह है कि
तात्कालीन सत्ता के खिलाफ जाकर सच बोलने की जुर्रत करने वाले डॉ मुखर्जी को इसकी
कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, और उससे भी बड़ी विडम्बना की बात ये है कि आज भी
देश की जनता उनकी रहस्यमयी मौत के पीछे की सच को जान पाने में नाकामयाब रही है. डॉ
मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग
है. उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा था कि, “एक देश में दो विधान, दो निशान और
दो प्रधान, नही चलेगा- नही चलेगा”.
उस समय भारतीय संविधान के
अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए
हुए जम्मू व कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता. डॉ मुखर्जी इस प्रावधान के
सख्त खिलाफ थे. उनका कहना था कि, “नेहरु जी ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि
जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत में 100% विलय हो चूका है. फिर भी यह देखकर हैरानी
होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नही हो सकता. मैं
नही समझता कि भारत सरकार को यह हक़ है कि वह किसी को भी भारतीय संघ के किसी हिस्से
में जाने से रोक सके क्योंकि खुद नेहरु ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर
भी शामिल है.”
उन्होंने इस प्रावधान के
विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनायीं.
इसके साथ ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना क्योंकि
जम्मू व कश्मीर के तात्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी
कश्मीरी मुसलमानों के बाद दुसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर
असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था. नेशनल कांफ्रेंस का डोगरा-विरोधी उत्पीड़न वर्ष
1952 के शुरूआती दौर में अपने चरम पर पहुँच गया था. डोगरा समुदाय के आदर्श पंडित
प्रेमनाथ डोगरा ने बलराज मधोक के साथ मिलकर ‘जम्मू व कश्मीर प्रजा परिषद् पार्टी’
की स्थापना की थी. इस पार्टी ने डोगरा अधिकारों के अलावा जम्मू व कश्मीर राज्य का
भारत संघ में पूर्ण विलय की लड़ाई, बिना रुके, बिना थके लड़ी. इस कारन से डोगरा
समुदाय के लोग शेख अब्दुल्ला को फूटी आँख भी नही सुहाते थे. शेख अब्दुल्ला के
दिमाग में जो योजनायें थीं, उनके मुताबिक जम्मू व कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य
बनाया जा सकता था, जिसका अपना संविधान, राष्ट्रीय विधानसभा, सुप्रीम कोर्ट और झंडा
होगा. प्रजा परिषद् के नेताओं ने किसी तरह उस संविधान के प्रारूप की कॉपी हासिल कर
ली जिसके कारन भी वे शेख अब्दुल्ला की नजरो में चढ़ गए. उस समय के तात्कालीन
इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख बीएन मलिक ने अपनी किताब ‘माई इयर्स विद नेहरु:
कश्मीर’ में लिखा है कि शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि सारे डोगरा कश्मीर छोड़कर भारत
चले जाएँ, और अपनी जमीन उनलोगों के लिए छोड़ दें, जिन्हें शेख अब्दुल्ला प्राणपन से
चाहते थे.
डॉ मुखर्जी बिना परमिट लिए
हुए ही 8 मई, 1953 को सुबह 6:30 बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैसेंजर ट्रेन में
अपने समर्थकों के साथ सवार होकर पंजाब के रास्ते जम्मू के लिए निकले. उनके साथ
बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद, गुरुदत्त वैध और कुछ पत्रकार भी थे.
रास्तें में हर जगह डॉ मुखर्जी की एक झलक पाने एवं उनका अविवादन करने के लिए लोगों
का जनसैलाब उमड़ पड़ता था. डॉ मुखर्जी ने जालंधर के बाद बलराज मधोक को वापस भेज दिया
और अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ी. ट्रेन में एक बुजुर्ग व्यक्ती ने गुरदासपुर (जिला,
जिसमे पठानकोट आता है) के डिप्टी कमिश्नर के तौर पर अपनी पहचान बताई और कहा कि ‘पंजाब
सरकार ने फैसला किया है कि आपको पठानकोट न पहुँचने दिया जाए. मैं अपनी सरकार से
निर्देश का इंतज़ार कर रहा हूँ कि आपको कहाँ गिरफ्तार किया जाए.’ हैरत की बात यह
निकली कि उन्हें गिरफ्तार नही किया गया, न तो अमृतसर में, न पठानकोट में और न ही
रास्ते में कहीं और. अमृतसर स्टेशन पर करीब 20000 लोग डॉ मुख़र्जी के स्वागत के लिए
मौजूद थे.
पठानकोट पहुँचने के तुरंत
बाद गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर, जो उनका पीछा कर रहे थे, ने उनसे मिलने की इजाजत
मांगी. उन्होंने डॉ मुखर्जी को बताया कि उनकी सरकार ने उन्हें निर्देश दिया है कि
वे उन्हें और उनके सहयोगियों को आगे बढ़ने दें और बिना परमिट के जम्मू व कश्मीर में
प्रवेश करने दें. उस अफसर को खुद हैरानी हो रही थी कि उसे जो आदेश मिलने वाले थे, वे
पलट कैसे दिए गए! उसे तथा वहां मौजूद अन्य किसी को भी इस साजिश की जरा भी भनक नही
थी जिसके अनुसार डॉ मुखर्जी को जम्मू व कश्मीर में गिरफ्तार किये जाने की योजना बन
चुकी थी ताकि वे भारतीय सर्वोच्च न्यायलय के अधिकार-क्षेत्र से बाहर पहुँच जाएँ.
उनका अगला ठहराव रावी नदी
पर बसे माधोपुर की सीमा के पास चेकपोस्ट था. रावी पंजाब की पांच महान नदियों में
से एक थी, जो पंजाब और जम्मू व कश्मीर की सीमा बनाते हुए बीच से बहती थी. नदी के
आर-पार जाने के लिए सड़कवाला एक पुल था, और राज्यों की सरहद इस पुल के बीचोंबीच थी.
जैसे ही डॉ मुखर्जी की जीप ब्रिज के बीच में पहुंची, उन्होंने देखा की जम्मू व
कश्मीर पुलिस के जवानों का दस्ता सड़क के बीच में खड़ा है. जीप रुकी और तब एक पुलिस
अफसर, जिसने बताया कि वह कठुआ का पुलिस अधीक्षक है, उसने राज्य के मुख्या सचिव का
10 मई, 1953 का एक आदेश सौपा, जिसमे राज्य में उनके प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया गया
था.
“लेकिन मैं जम्मू जाना
चाहता हूँ !” डॉ मुखर्जी ने कहा.
इसके बाद उस पुलिस अफसर ने
गिरफ्तारी का आदेश अपनी जेब से निकाला, जो पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत जारी किया
गया था और जिस पर जम्मू व कश्मीर के पुलिस महानिरीक्षक पृथ्वीनंदन सिंह का 10 मई
का दस्तखत था, जिसमे कहा गया था डॉ मुखर्जी ने ऐसी गतिविधि की है, कर रहे हैं या
करनेवाले हैं, जो सार्वजनिक सुरक्षा एवं शांति के खिलाफ है, अतः उन्हें गिरफ्तार
करने का आदेश दिया जाता है. प्रश्न यह उठता है कि यदि उनकी तथाकथित गतिविधियों से सार्वजनिक सुरक्षा एवं शांति को इतना ही बड़ा खतरा था तो
उन्हें जम्मू व कश्मीर के सीमा में प्रवेश करने से पहले ही क्यों नही गिरफ्तार
किया गया जैसा कि गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर ने डॉ मुखर्जी को इस बारे में बताया
था? उन्हें पठानकोट या उससे पहले ही गिरफ्तार किये जाने की योजना क्यों बदल दी गयी?
उन्हें आगे बढ़ने ही क्यों दिया गया ? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो आज भी अनुत्तरित
हैं.
डॉ मुखर्जी को जिस जगह
बंदी बनाया गया था, वह वाकई एक बहुत छोटा सा मकान था, जिसके आसपास कुछ भी नही था-
निशात बाग़ के करीब, लेकिन श्रीनगर शहर से काफी दूर, जिसे एक उपजेल बना दिया गया
था. इस मकान तक पहुँचने के लिए खड़ी सीढियाँ चढ़नी पड़ती थीं, खासकर उनके ख़राब पैर की
वजह से यह और भी मुश्किल हो जाता होगा. इस मकान का सबसे बड़ा कमरा दस फीट लम्बा और
ग्यारह फीट चौड़ा था, जिसमे डॉ मुखर्जी को बंदी बनाया गया था. वहीँ किनारे के दो
छोटे-छोटे कमरों में उनके साथ बंद गुरुदत्त वैध और टेकचंद को रखा गया था. शहर से
कोई डॉक्टर तभी आ सकता था, जब उसे विशेष रूप से बुलाया जाता. बांगला भाषा में लिखी
गयी उनकी द्वारा चिठियों की विशेष अनुवादक द्वारा जांच करायी जाती थी. शेख
अब्दुल्ला ने यह आदेश दे रखा था कि डॉ मुखर्जी को कोई अतिरिक्त सहूलियत तब-तक न दी
जाए, जब तक वे खुद आदेश न दें. जेल में रहने के दौरान उनके किसी भी दोस्त या
रिश्तेदार को उनसे मिलने नही दिया गया, यहाँ तक की उनके बड़े बेटे अनुतोष की अर्जी
भी ठुकड़ा दी गयी. वह जेल में प्रतिदिन डायरी लिखा करते थे जो कि उनके बारे में
जानकारी का एक अच्छा स्त्रोत हो सकता था परन्तु शेख अब्दुल्ला की सरकार ने उनकी
मौत के बाद उस डायरी को जब्त कर लिया और बार-बार गुजारिश के बावजूद भी अभी तक
लौटाया नही गया है. 24 मई को पंडित नेहरु और डॉ कैलाशनाथ काटजू आराम करने श्रीनगर पहुंचे
पर उनलोगों ने डॉ मुखर्जी से मुलाक़ात कर उनका कुशलक्षेम पूछना भी उचित नही समझा.
22 जून की सुबह उनकी तबियत
अचानक बहुत ज्यादा बिगड़ गयी. जेल अधीक्षक को सूचित किया गया. काफी विलम्ब से वह एक
टैक्सी (एम्बुलेंस नही) लेकर पहुंचे और वह डॉ मुखर्जी को उस नाज़ुक हालात में भी
उनके बेड से चलवाकर टैक्सी तक ले गए. उनके बाकी दो साथियों को उनके साथ उनकी
देखभाल करने के लिए अस्पताल जाने की इजाजत नही दी गयी. उन्हें कोई निजी नर्सिंग
होम में नही बल्कि राजकीय अस्पताल के स्त्री प्रसूति वार्ड में भरती कराया गया. एक
नर्स जो कि डॉ मुखर्जी के जीवन के अंतिम दिन उनकी सेवा में तैनात थी, ने डॉ
मुखर्जी की बड़ी बेटी सविता और उनके पति निशीथ को काफी आरजू-मिन्नत के बाद श्रीनगर
में एक गुप्त मुलाकात के दौरान यह बताया था कि उसी ने डॉ मुखर्जी को वहां के
डॉक्टर के कहने पर आखिरी इंजेक्शन दिया था. उसने बताया कि जब डॉ मुखर्जी सो रहे थे
तो डॉक्टर जाते-जाते यह बता कर गया कि, ‘डॉ मुखर्जी जागें तो उन्हें इंजेक्शन दे
दिया जाए और उसके लिए उसने एम्प्यूल नर्स के पास छोड़ दिया.’ कुछ देर बाद जब डॉ
मुख़र्जी जगे तो उस नर्स ने उन्हें वह इंजेक्शन दे दिया. नर्स के अनुसार जैसे ही
उसने इंजेक्शन दिया डॉ मुखर्जी उछल पड़े और पूरी ताकत से चीखे, ‘जल जाता है, हमको
जल रहा है.’ नर्स टेलेफोन की तरफ दौरी ताकि डॉक्टर से कुछ सलाह ले सके परन्तु तब
तक वह मूर्छित हो चुके थे और शायद सदा के लिए मौत की नींद सो चुके थे. पंडित नेहरु
जो डॉ मुखर्जी की मृत्यु के दौरान लन्दन में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ II की
ताजपोशी में हिस्सा ले रहे थे, ने बॉम्बे एअरपोर्ट पर उतरने के पश्चात भी इस त्रासदी
पर कुछ भी नही बोले जिसने उनकी अनुपस्थिति में पुरे देश को स्तब्ध कर दिया था.
डॉ
मुखर्जी की मां जोगमाया देवी ने नेहरु के 30 जून, 1953 के शोक सन्देश का 4 जुलाई
को उत्तर देते हुए पत्र लिखा जिसमें उन्होंने उनके बेटे की रहस्मयी परिस्थितियों
में हुई मौत की जाँच की मांग की. जवाब में पंडित नेहरु ने बड़ी मीठी-मीठी बातें
लिखीं, दुखियारी माँ के लिए आकंठ करुणा की अभिव्यक्ति की; परन्तु जांच की मांग को ख़ारिज
कर दिया. उन्होंने जवाब देते हुए यह लिखा कि, “मैंने कई लोगों से इस बारे में
मालूमात हासिल किये हैं, जो इस बारे में काफी कुछ जानते थे. मैं आपको सिर्फ इतना
कह सकता हूँ कि मैं एक स्पष्ट और इमानदार नतीजे पर पहुँच चूका हूँ कि इसमें कोई
रहस्य नही है और डॉ मुखर्जी का पूरा ख्याल रखा गया था.”
यहाँ
सबसे बड़ा विचारनीय प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि आखिर पंडित नेहरु ने जांच की मांग
को ख़ारिज क्यों कर दिया ? क्या उन्हें नैतिक, राजनैतिक या संवैधानिक किसी भी अधिकार
के तहत इस प्रकार का फैसला सुनाने का हक था ? क्या कोई गुप्त बात थी अथवा इस घटना
के पीछे कोई साजिश थी जिसके जांचोपरांत बाहर आ जाने का डर था ? ये सारे प्रश्न
इसलिए प्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि जब कभी भी एक मशहूर शख्शियत की संदिग्ध
परिस्थितियों में मौत होती है, अथवा वह गायब होता है, तब एक जांच जरुर होती है. इस
तरह के कम से कम तीन कमीशन नेताजी सुभाषचंद्र बोस के गायब होने की जांच करने के
लिए बनाये गए. ये कमीशन थे – शाहनवाज़ कमीशन (1956), जीडी खोसला कमीशन (1970) और
मनोज मुकर्जी कमीशन(1999). महात्मा गाँधी की हत्या की जांच कपूर कमीशन ने, इंदिरा
गाँधी कि हत्या की जांच ठक्कर कमीशन ने और राजीव गाँधी की हत्या की दो कमीशन जेएस
वर्मा कमीशन और एमसी जैन कमीशन ने जांच की. यहाँ यह गौरतलब है कि ये सभी हत्याकांड
(नेताजी के गायब होने को छोड़कर) सबके आँखों के सामने हुए; फिर भी कातिलों की
पृष्ठभूमि और साजिश का पता लगाने के लिए जांच की गयी. परन्तु डॉ मुखर्जी की अकाल मौत
रहस्मयी परिस्थितियों में एक गुप्त जगह में, परिवार और दोस्तों से दूर, एक
शत्रुतापूर्ण क्षेत्र में हुई, जहाँ भारत के सुप्रीम कोर्ट का अधिकार क्षेत्र तक
नही था, बावजूद इसके आजतक इस घटना की औपचारिकता मात्र के लिए भी एक जांच नहीं हुई
है. क्या यह डॉ मुखर्जी एवं उनके परिवार के साथ-साथ पुरे देश के साथ एक सरासर धोखा
नही है ? क्या देश की जनता को यह जानने का हक नही है कि उसके प्रिय नेता की मौत के
पीछे का जिम्मेदार कारक कौन था ? कम से कम अभी की वर्तमान सरकार को चाहिए कि इस
मामले में एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच समिति का गठन करे और जनता के समक्ष
सच्चाई लाने का प्रयास करे क्योंकि यदि यह अभी नही होगी तो फिर कभी नही होगी.
लेखकगन:
1. रोहित कुमार (चतुर्थवर्षीय विधि छात्र, कीट लॉ स्कूल
भुबनेश्वर, ओडिशा)
2. प्रोफेसर प्रत्युष कुमार (विधि-शिक्षक, नेशनल लॉ
यूनिवर्सिटी, दिल्ली)
नोट
1: प्रोफेसर प्रत्युष कुमार रिश्ते में कमला सिन्हा के नाती लगते हैं, जो आई के
गुजराल के प्रधानमंत्रित्व काल में विदेश राज्य मंत्री थीं. कमला सिन्हा रिश्ते में
डॉ मुख़र्जी की नतिनी लगती थीं. अतः, इस आर्टिकल के सह-लेखक प्रोफेसर प्रत्युष
कुमार डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के वंशज हैं.
नोट
2: उपरोक्त आर्टिकल के लिए सारे तथ्य वर्तमान में त्रिपुरा राज्य के राज्यपाल श्री
तथागत रॉय की लिखी हुई किताब “अप्रतिम नायक डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी” प्रभात
प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2013 से ली गयी है.
For More Details about co-author Pratyush Kumar:
1.
Profile of Pratyush Kumar: http://www.nludelhi.ac.in/pep-fac-new-pro.aspx?Id=64
Profile of Late Kamla Sinha: https://en.wikipedia.org/wiki/Kamala_Sinha
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