Wednesday, 25 November 2015

मनुष्यता बनाम पशुता.

मैं किसी भी रूप में 'मनुष्य' को 'जानवरों' से श्रेष्ठ मानने से पूर्णतः इनकार करता हूँ. किसने अधिकार दिया है इस 'मनुष्य जाति' को स्वयं को 'जानवरों' से श्रेष्ठ समझने का ?? क्या यह 'मनुष्य जाति' मात्र इस आधार पर स्वयं को 'जानवरों' से श्रेष्ठ समझना चाहती है कि प्रकृति ने इसे 'सोचने-समझने' की एक विशिष्ट एवं भिन्न शक्ति से नवाज़ा है ?? यदि ऐसा है तो इससे बड़ा कोई "IRONY" नही है. आज इसी सोचने की शक्ति का कुपरिणाम है कि 'वफादारी' शब्द सिर्फ कुत्तों तक सिमट रह गयी है और चोरी, डकैती, गुंडागर्दी, क्रूरता और नृशंसता मनुष्यता के पर्याय बन चुके हैं.

यह मनुज ज्ञानी, श्रृगालों, कुक्करों से हीन
हो, किया करता अनेकों क्रूर कर्म मलीन
देह ही लडती नहीं, हैं झूझते मन-प्राण,
साथ होते ध्वंस में इसके कला-विज्ञान !
इस मनुज के हाथ से विज्ञान के भी फूल,
वज्र होकर छूटते शुभ धर्मं अपना भूल !
यह मनुज, जो ज्ञान का आगार !
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार !
नाम सुन भूलो नहीं, सोचो-विचारो कृत्य;
यह मनुज, संहार-सेवी वासना का भृत्य!
छद्म इसकी कल्पना, पाखण्ड इसका ज्ञान,
यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम अपमान.
राष्ट्रकवि "दिनकर" (कुरुक्षेत्र)

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