Tuesday, 15 July 2014

                                                 जन’ के ऊपर ‘तंत्र’


अब्राहम लिंकन यदि आज जीवित होते तो मैं समझता हूँ कि उन्हें जनतंत्र की दी हुई अपनी परिभाषा पर पुनर्विचार करने के लिए अवश्य बाध्य होना पड़ता / उन्होंने अपनी परिभाषा में जनतंत्र को जनता का असली मालिक कहा है / जनतंत्र को जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन बतलाया है / परन्तु, क्या यह सत्य है ? क्या वास्तव में जनता ही जनतंत्र का असली मालिक है ? क्या सच में ‘जन’ , ‘तंत्र’ से ऊपर है अथवा ‘तंत्र’ के ऊपर ‘जन’ का नियंत्रण है ? ये ऐसे विचारनीय प्रश्न हैं जिन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है / मैं समझता हूँ ‘जन’ , ‘तंत्र’ से ऊपर जरुर होता है परन्तु पांच वर्ष में मात्र एक बार, चुनाव के समय / बाकी समय तो ‘तंत्र’ ही ‘जन’ पर हावी होता है / मैं विशेषतः भारतीय जनतंत्र के सम्बन्ध में विचार प्रकट कर रहा हूँ / मेरा मानना है कि उन्ही पांच वर्षों में एक बार बेचारे ‘जन’ अपने आप को लोकतंत्र का जितना बड़ा मालिक समझना चाहते हों, समझ लें / लोकतंत्र का स्वामी होने के क्षणिक गौरव से अपने आप को जितना मंत्रमुग्ध करना चाहते हों, कर लें / एक वोट की शक्ति से ‘तंत्र’ को क्षण भर के लिए जितना नचाना चाहते हों , नचा लें, क्योंकि शेष पांच वर्ष तो फिर उन्हें उसी ‘तंत्र’ के धुन पर नाचना होगा / चुनाव के समय अपने एक ऊँगली से वोट डालने वाले लोकतंत्र के तथाकथित धुरी को बाकी के पांच वर्ष अपने दसों उँगलियाँ जोड़कर ‘तंत्र’ के सामने गिडगिडाना होगा / यही है लोकतंत्र / पांच वर्ष में एक बार ‘जन’ मालिक होता है और ‘तंत्र’ भिखारी और बाकि समय ‘तंत्र’ मालिक और ‘जन’ भिखारी / इसे लोकतंत्र की खूबसूरती कहा जाये या बदसूरती यह तो मैं नहीं बतला सकता पर इतना जरुर कह सकता हूँ कि लोकतंत्र की परिभाषा जीतनी खुबसूरत है उतना स्वंय लोकतंत्र नहीं / लोकतंत्र की आत्मा जीतनी ही खुबसूरत और पवित्र है, इसका चेहरा उतना ही बदसूरत और घृणित / छल. प्रपंच, झूठ, फरेब, बेईमानी, वादाखिलाफी, विश्वासघात लोकतंत्र के शरीर के विभिन्न अंग हैं / मुझे ‘मजदुर किसान शक्ति संगठन’ से जुड़े हुए वरिष्ठ समाजसेवी शंकर सिंह की वह बात अत्यधिक प्रासंगिक लग रही है जो उन्होंने कुछ महीने पहले ‘सत्यमेव जयते’ में आमिर खान के सामने लोकतंत्र की परिभाषा बताते हुए कही थी / उन्होंने कहा था :-
“ एक राजा ने एक चोर के सामने सजा में विकल्प रखा / राजा ने कहा या तो तुम्हे सौ जुते खाने हैं या सौ प्याज़ पर शर्त यही है की लगातार खाना है, रुकना नहीं है / चोर ने सोचा जुते कौन खाने जाये प्याज ही खा लूँगा परन्तु उसने जैसे ही मुश्किल से 10-12 प्याज़ खाया होगा कि उसके नाक और आँख से पानी आने लगे , जीभ लाल हो गया / फिर उसने सोचा की अब आगे एक भी प्याज खाया तो मर जाऊंगा अतः जुते ही खा लेता हूँ / फिर उस पर लगातार जुते पड़ने लगे / दस-बारह जुते खाने के बाद वह वह लगभग बेहोशी की हालत में पहुँच गया / उसने फिर कहा रुको-रुको प्याज खा लेता हूँ और फिर वही सिलसिला चलता रहा, कभी जुते, कभी प्याज, कभी प्याज, कभी जुते / ” हमारे लोकतंत्र की भी यही समान कहानी है / वास्तव में लोकतंत्र का यही सिलसिला है / झूठ और विश्वासघात इसके अभिन्न अंग हैं / नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार जिन मुद्दों पर चुनाव जीतकर आई उनमें महंगाई एक महत्वपूर्ण मुद्दा था / नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस शासित सरकार में आसमान छूती महंगाई का हवाला देकर तथा सत्ता में आने पर बढती महंगाई पर पूर्ण नियंत्रण का भरोसा दिलाकर आम जनता को अपनी ओर आकर्षित किया और सरकार बनाने में सफल हुए / परन्तु सरकार में आने के बाद क्या हुआ वो सर्वविदित है / 100 रूपए का रेलवे टिकट 115 रूपए में और 8 रूपए प्रति किलो वाली आलू 24 रूपए प्रति किलो में / सवाल यह नहीं है कि 100 का टिकट आखिर 115 में क्यों बल्कि सवाल यह है कि जनता के साथ इतनी बड़ी झूठ क्यों ? इतना बड़ा विश्वासघात क्यों ? यदि देश की आर्थिक हालत सुधारने के लिए महंगाई बढ़ाना आवश्यक ही था जैसा की भारतीय जनता पार्टी के कुछ राष्ट्रीय नेता अभी तर्क दे रहे हैं तो चुनाव-पूर्व महंगाई को मुद्दा ही क्यों बनाया गया ? क्यों बार-बार बढती महंगाई का नाम लेकर बी जे पी द्वारा जनता को अपने तरफ गुमराह करने की कोशिश की गयी यदि महंगाई बढ़ाना देश की आर्थिक हालत सुधारने के लिए आवश्यक ही था तो ? क्या यह झूठ, विश्वासघात और देश की जनता को गुमराह करने की राजनीति नहीं है ? क्या यह जनता की भावनाओं के साथ क्रूर मजाक नहीं है ? क्या ऐसे आचरण लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप माने जा सकते हैं ? मेरे विचार में कदापि नहीं / यह किसी भी रूप में एक स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक नहीं हो सकता है / यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजस्थान की जिस जनता ने कुछ महीने पहले विधानसभा चुनाव में बी जे पी को प्रचंड बहुमत से जीत दिलाई और लोकसभा में किसी अन्य पार्टी का खाता तक नही खुलने दिया, आज उसी राज्य की मुख्यमंत्री रोजगार गारंटी कानून को योजना बनाने की मांग कर रही हैं / इसके लिए बाकायदा उन्होंने केंद्र सरकार के मंत्री नितिन गडकरी को पत्र भी लिखा है / शायद मुख्यमंत्री जी को आम जनता को मिले हुए क़ानूनी अधिकार पसंद नहीं आ रहे हैं / कानून समाप्त करके इसे योजना बनाने का सीधा तात्पर्य है कि जनता के पास ‘ रोजगार का अधिकार नहीं रहेगा ‘ / सरकार की कोई निश्चित जवाबदेही नहीं रहेगी / माननीया मुख्यमंत्री जी को यह विचार करना चाहिए कि जनता से अधिकार छिनना लोकतंत्र का उद्देश्य होना चाहिए या जनता को अधिकार देकर सशक्त बनाना / बहुत लोग इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने की दलील देकर इसे ख़त्म करने की वकालत कर रहे हैं / मेरा उन सारे लोगों से सिर्फ एक ही प्रश्न है कि 2जी केस में साढ़े सत्रह लाख करोड का घोटाला हुआ तो क्या दूरसंचार मंत्रालय बंद हो गया ? कितने लाख करोड का कोयला घोटाला हुआ तो क्या कोयला मंत्रालय बंद हो गया ? रक्षा मंत्रालय में हेलीकाप्टर खरीद में घोटाला हुआ तो क्या रक्षा मंत्रालय बंद हो गया ? जो लोग भ्रष्टाचार की दुहाई देकर इसे बंद करने की वकालत कर रहे हैं , वास्तव में इसके पीछे उनका छुपा हुआ अन्य मकसद है / महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी कानून ने गरीबों को आत्मनिर्भर बनाया है / हक के साथ कमाने की आजादी दी है / मर्यादा के साथ जीने का अधिकार दिया है जो वास्तव में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में मुलभुत अधिकार के रूप में वर्णित है / इस कानून ने शोषण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है / परन्तु आज उसी क़ानूनी अधिकार को छिनने की मांग उठ रही है, वो भी उस राज्य की मुख्यमंत्री के द्वारा जो राज्य इस क़ानूनी आन्दोलन का जन्मस्थल रह चूका है / निश्चित ही एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ये परिस्थितियां अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है / ‘तंत्र’ को यह अवश्य सोचना चाहिए की फिर उसे एक दिन दसों उँगलियाँ जोड़कर ‘जन’ के सामने खड़ा होना होगा और तब ‘तंत्र’ के लिए जवाब खोजना अत्यंत मुश्किल होगा /


By:- ROHIT KUMAR ( 3rd year B.A.LL.B Student                                                  

       KIIT School of Law, KIIT University, Bhubaneswar )

       Email :- rohitsingh3280@gmail.com)
       
      




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